Friday, September 26, 2008

अंतत:

"घनघोर घटाएँ उमड़ पड़ी हैं
फैला प्रलय चारो ओर
झुकने लगा है गगन जमीं पर
नदियों में भी लगी है होड़"

"भूमंडल पर फैला पानी
लाँघ चुका है सब बाधाएँ
प्रकृति का तांडव देख कर
मानवता कर रही हाय हाय"

"उजाड़ चुके हैं नगर सारे
हो प्राचीन या वर्तमान
खो गयी हैं किलकारी नन्हो की
बड़े हुए बेसुध बेजान"

"तहस नहस कर गया सभी कुछ
किया जो प्रकृति से खिलवाड़
मानो कह रही हो हमसे
बंद करो ये अत्याचार"

"जब टूटेगा बाँध सब्र का
होगा ऐसा नर संहार
अब तो संभल जा हे मानव
प्रकृति कर रही पुकार"

"अक्स"

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