"पाकर मंज़िल, मुश्किल-ए-परवाज़ भूल जाता है,
इंसान बड़ा संगदिल है, हमराह भूल जाता है,
राहों की मुश्किलों में, जो खाई हैं उसने ठोकरें,
उनसे संभालने वाले वो, हाथ भूल जाता है"
सोता है बेफिक्री से, हसीन ख्वाबों में खोकर,
अपनी निगहबानी में लगी, नज़रें भूल जाता है,
करता है रस्क अपनी, मिथ्या बुलंदियों पर,
उन्माद के कोलाहल में, संसार भूल जाता है"
"गुरूर में करता है, नीव कुन्द सभी संबंधो की,
उँची उड़ान के दंभ में, ज़मीन को भूल जाता है,
हवाई किले में बाँधे, हरदम झूठ के पुलिंदे,
गैरों के झाँसे में, अपनो को भूल जाता है"
"इंसान अपनी फ़ितरत से कब बाज़ आता है,
इंसान अपनी फ़ितरत से कब बाज़ आता है"
'अक्स'