Friday, June 25, 2021

महामारी

 "कुछ की होगी खता हमने,

जो ये महामारी आयी है,

बनकर एक काल दंश जो,

पूरी मानवता पर छाई है"


"किया जंगल से खिलवाड़ कहीं,

 कहीं नदियों में आग लगाई है,

विकास की एक झूठी जिद ने,

आफत दुनिया पर ढाई है"


"चमगादड़ की लेकर आड़ कहीं,

हमने प्रकृति की हंसी उड़ाई है,

जैविक हथियार की अंधी दौड़ में,

अपनो की ही मौत बनाई है"


"कोई खून के आंसू रोता है,

कोई सब अपनो को खोता है,

सब लिए सिलेंडर भाग रहे,

साँसों की अब ये लड़ाई है"


"ना अस्पताल में बेड कहीं,

ना ही मिल रही दवाई है,

एक एक इंजेक्शन पर लड़ मरे सब,

अब यहां हर कोई आततायी है"


" निज़ाम सो रहा घोड़े बेच,

 हो रही न कोई सुनवाई है,

प्रजा का सुनकर हो हल्ला,

उसने कानो में रुई जमाई है"


"खुद ही करना, खुद ही भरना,

लोगो को सीख ये आयी है,

है राजा ना कोई, रंक यहां,

ये महामारी सबको सिखलाई है"


"करना होगा हमे गहन विचार,

क्यों ये महामारी आयी है"

'अक्स'

Monday, June 14, 2021

ख्वाहिश

 "ख़ुश्क, खस्ता हाल है आज हर ज़मीर,

ख्वाहिशों से लबालब, इंसां नज़र आता है,

खास ओ आम में फ़र्क़, अब मुमकिन ही नहीं,

ग़ुम ग़ज़िदा अब, हर बेकरार नज़र आता है"


"गुमगश्ता ज़िन्दगी है, अब इन राहों में कहीं,

गर्दिशों में फंसा, हर नादाँ नज़र आता है,

अस्हाब मान बैठे हैं खुद को, कुछ जर खरीद गुलाम,

अफ़सुर्दा अलीम भी अब, अपने इल्म को रोता है"


"इफ़्रात की बीमारी, खा जाती है फ़ज़ल को,

इनाद का एक पौधा, पनपता नज़र आता है,

इबादत की नही इबारत, इस जहां में ओर कोई,

ख़िदमत हो गर इंसां की, बस नूर बरस जाता है"


"बे ज़ार, बे कस, बे खुद ,है ये पासबान चमन का,

बेक़ल जिसकी फ़िक्र में, हर गुल नज़र आता है,

समझे है खुद को कातिब, इस बज़्म में हर कोई, 

मुग़ालते में इश्क़ के, 'अक्स' बर्बाद हुआ जाता है"

'अक्स'

Wednesday, June 9, 2021

अल्फ़ाज़

 "कुछ यूं उधड़े अल्फ़ाज़ सिल लिए मैंने,

डोर कच्ची थी मगर काम आ गयी,

ज़हमत जो उठाई , कभी कुछ कहने की,

वो तबस्सुम मेरे लफ़्ज़ों पे छा गयी"


"तर्जुमान को भी खोजा, कहीं मिल जाये,

सुर्ख लबों की ये चुन्नटें अब खुल जाएं,

तसल्ली न मिली, तारिक मिलता गया,

तिशनगी उस नाआशना की, जेहन पे छा गयी"


"दानिश भी परेशां हैं, मेरे हाल को लेकर,

फ़ितरत मेरे मर्ज़ की , कुछ यूं गुमा गयी,

रोग है फुराक़ का या फ़ुवाद का ए 'अक्स',

इब्तिला थी मेरी, पर सबको रुला गयी"

'अक्स'

Tuesday, June 8, 2021

तलाश -2

 "मेरी नाशाद ख्वाहिशों को नवाज़िश की तलाश है , 

नाचीज़ को जो समझे , उस निगाह की तलाश है,  

फिरता हूँ दर ब दर , किसी फ़क़ीर की तरह,

इस रूह ए नामुराद को, नबी की तलाश है ।"


"अर्ज़मन्द यहां कौन है, जरा सामने तो आये, 

नाशुकरौ की इस अन्जुमन में, तसरीफ तो लाये,

बैठे हैं  दिल थाम के , सब जिसकी आमद में,

उसको भी इस जहां में आदिल की तलाश है"


"इश्राक की एक किरण आ जाए कहीं से,

अन्ज को जाने कब से अब्र की प्यास है,

अल्फ़ाज़ गिर गये गले में, तालू से फिसल कर,

अब्सार  को जमाने से नमी की तलाश है"


"आलिम की आवाज़ यहां अब सुनता नही कोई,

अब सब को आब ए आईना में, जन्नत की आस है,

स्वीकार कर सके गर, कर लेना तू भी 'अक्स'

ख़ुदी के साथ रहकर भी, तुझे खुद की तलाश है"

'अक्स'

Thursday, June 3, 2021

क्या लिखूं

"खैर ओ गुरबत के इस मसौदे का हल नही मिलता,

तिरा नज़र डालूं ,   बस कयामत नज़र आती है,

ज़ियारत सा भरा रहता था जो हर एक चौबारा,

नाचारों का वहां अब एक गट्ठर नज़र आता है"


 "इस जहां की खुशियों को दीमक लग गयी है शायद

हर ओर बेकशी और बेबसी का मंजर नज़र आता है,

सुकून ए दिल की तलाश में भटक रहा हर कोई,

खुद के कांधो पर खुद की, न’अश लिए जाता है"


 त्राहि माम त्राहि माम सुनाई पड़ता है हर ओर,

न नौनिहाल कोई अब  खिलखिलाता नज़र आता है,

कितनो के अपने बिछड़ गए, इस ख़ता ग़ुबार में,

हर घर के आगे अब एक शमशान नज़र आता है"


 "निज़ाम की पेशानी पे फ़क़त नही कोई शिकन,

उसकी अदब अन्जुमन की यही तो निशानी है,

अत्तफ़ाल कितने अफ़सुर्दा किसको है क्या खबर,

इनके लिए लहू भी अब आब-ए-तल्ख़ मानी है"


 "सूखे पड़े हैं आबे ए चश्म, क्या आरज़ू करें,

 तिरा काज़ी के हाथों कत्ल की साज़िश नज़र आती है,

काइल कुबूलनामा उन्होंने कायदों में नही पढ़ा लिखा,

ख़ज़ां में बस ख़ुदी का जो ख़ुमार चढ़ा जाता है"

"आशुफ़्ता है सारी प्रजा, न इज़्तिराब से कोई निजात,

इन्तिज़ाम में, इन्तिख़ाब के, उफ़्ताद को दावत दे डाली है,

ख्व़ाहिश हुई न पूरी जाहिल की , रहा लब्बो लुबाब निल

ग़़फलत में गुरूर करना,  बस जाहिलों को ही आता है"


"मैं क्या लिखूं , क्या ना लिखूं, है जुस्तजू यही,

आमद में खुशियां लिख दे, गर तुझे आता है ???"

'अक्स'