Thursday, June 3, 2021

क्या लिखूं

"खैर ओ गुरबत के इस मसौदे का हल नही मिलता,

तिरा नज़र डालूं ,   बस कयामत नज़र आती है,

ज़ियारत सा भरा रहता था जो हर एक चौबारा,

नाचारों का वहां अब एक गट्ठर नज़र आता है"


 "इस जहां की खुशियों को दीमक लग गयी है शायद

हर ओर बेकशी और बेबसी का मंजर नज़र आता है,

सुकून ए दिल की तलाश में भटक रहा हर कोई,

खुद के कांधो पर खुद की, न’अश लिए जाता है"


 त्राहि माम त्राहि माम सुनाई पड़ता है हर ओर,

न नौनिहाल कोई अब  खिलखिलाता नज़र आता है,

कितनो के अपने बिछड़ गए, इस ख़ता ग़ुबार में,

हर घर के आगे अब एक शमशान नज़र आता है"


 "निज़ाम की पेशानी पे फ़क़त नही कोई शिकन,

उसकी अदब अन्जुमन की यही तो निशानी है,

अत्तफ़ाल कितने अफ़सुर्दा किसको है क्या खबर,

इनके लिए लहू भी अब आब-ए-तल्ख़ मानी है"


 "सूखे पड़े हैं आबे ए चश्म, क्या आरज़ू करें,

 तिरा काज़ी के हाथों कत्ल की साज़िश नज़र आती है,

काइल कुबूलनामा उन्होंने कायदों में नही पढ़ा लिखा,

ख़ज़ां में बस ख़ुदी का जो ख़ुमार चढ़ा जाता है"

"आशुफ़्ता है सारी प्रजा, न इज़्तिराब से कोई निजात,

इन्तिज़ाम में, इन्तिख़ाब के, उफ़्ताद को दावत दे डाली है,

ख्व़ाहिश हुई न पूरी जाहिल की , रहा लब्बो लुबाब निल

ग़़फलत में गुरूर करना,  बस जाहिलों को ही आता है"


"मैं क्या लिखूं , क्या ना लिखूं, है जुस्तजू यही,

आमद में खुशियां लिख दे, गर तुझे आता है ???"

'अक्स'

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