"ख़ुश्क, खस्ता हाल है आज हर ज़मीर,
ख्वाहिशों से लबालब, इंसां नज़र आता है,
खास ओ आम में फ़र्क़, अब मुमकिन ही नहीं,
ग़ुम ग़ज़िदा अब, हर बेकरार नज़र आता है"
"गुमगश्ता ज़िन्दगी है, अब इन राहों में कहीं,
गर्दिशों में फंसा, हर नादाँ नज़र आता है,
अस्हाब मान बैठे हैं खुद को, कुछ जर खरीद गुलाम,
अफ़सुर्दा अलीम भी अब, अपने इल्म को रोता है"
"इफ़्रात की बीमारी, खा जाती है फ़ज़ल को,
इनाद का एक पौधा, पनपता नज़र आता है,
इबादत की नही इबारत, इस जहां में ओर कोई,
ख़िदमत हो गर इंसां की, बस नूर बरस जाता है"
"बे ज़ार, बे कस, बे खुद ,है ये पासबान चमन का,
बेक़ल जिसकी फ़िक्र में, हर गुल नज़र आता है,
समझे है खुद को कातिब, इस बज़्म में हर कोई,
मुग़ालते में इश्क़ के, 'अक्स' बर्बाद हुआ जाता है"
'अक्स'
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