"कुछ यूं उधड़े अल्फ़ाज़ सिल लिए मैंने,
डोर कच्ची थी मगर काम आ गयी,
ज़हमत जो उठाई , कभी कुछ कहने की,
वो तबस्सुम मेरे लफ़्ज़ों पे छा गयी"
"तर्जुमान को भी खोजा, कहीं मिल जाये,
सुर्ख लबों की ये चुन्नटें अब खुल जाएं,
तसल्ली न मिली, तारिक मिलता गया,
तिशनगी उस नाआशना की, जेहन पे छा गयी"
"दानिश भी परेशां हैं, मेरे हाल को लेकर,
फ़ितरत मेरे मर्ज़ की , कुछ यूं गुमा गयी,
रोग है फुराक़ का या फ़ुवाद का ए 'अक्स',
इब्तिला थी मेरी, पर सबको रुला गयी"
'अक्स'
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