"मुर्दों के शहर में कभी बशर नही मिलते,
मिलती है बस राख पर अशर नही मिलते,
यूँ तो अंदाज तेरे शहर का है बड़ा ही संजीदा,
दिल को जो जोड़ लें वो मुंतशर नही मिलते"
"यूँ तो ख़्वाबों के शहर में मेरा जाना है रोज ही,
बिस्तर को सलवटों से सजाना है रोज ही,
जिंदा है ये शहर महज जज़्बातों के दम पर,
ज़िंदादिली के ऐसे फिर मंजर कहाँ मिलते"
"रूह जख्मी है पर ज़ख्म से लहू नही रिस्ता,
अपनो की आस्तीनों में अब खंजर नही छिपते,
लगता है तेरे शहर का बस यही है एक कायदा,
मिल जाते हैं बस ज़ख्म मगर मरहम नही मिलते"
"वो तो आवारगी की आदत है हमे ए 'अक्स'
फक़त बख़्त बिन ऐसे नादिर बशर नहीं मिलते"
'अक्स'
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