"जब से सभी के दर्द से, जुड़ने लगा हूँ मैं,
जाने कितनी निगाहों में, कुढ़ने लगा हूँ मैं ,
मुद्दत हुई बहुत मिले, मुझे मेरे अकील से,
उसको भी दरकिनार कर, जाने लगा हूँ मैं"
"अश्कों को बहने की अब, इज़ाज़त नही कोई,
सैलाब ए रंज ओ गम को अब, पीने लगा हूँ मैं,
यूँ तो सहर और शाम का, रिश्ता है मुझसे खास,
फिर क्यों दोनों के नाम से, जलने लगा हूँ मैं"
" तन्हा हूँ जर जमीन से, मयस्सर भी नही एक छत,
जुस्तजू ए फिरदौस तो, फिर भी करने लगा हूँ मैं,
मिलता हूँ खुशमिजाजी से, ज़ानिब चाहे कोई हो,
अपने ही अक्स से मगर, क्यों कटने लगा हूँ मैं"
"रवायतें दुनिया की हैं बस, मिलना और रुखसती,
अपनी ही रवायतें गढ़ने में, जाने क्यों लगा हूँ मैं,
कहता हूँ सच और, जुबां बन जाती है जहर 'अक्स'
फिर भी सभी को सच क्यों, कहने लगा हूँ मैं"
'अक्स'
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