परदेश में नौकरी का, तिरा आलम ये हो गया,
घर था जो मेरे लिए हमेशा, अब मकाँ हो गया,
गूंजता था जहां नाम मेरा, कभी बेतरीबी से,
आज वहीं तहजीब की, जंजीरों में कैद हो गया ।
आफिस में तो थी ही, पदवी साहब के नाम की,
अपनो में भी अब, इसी नाम से बदनाम हो गया।
गले में डाल बाहें, कभी घूमता था साथ जिनके,
उन्ही यारों से मिलना भी, अब दुश्वार हो गया ।
मुझे तो मिल गए के अपने, इस अंजान शहर में,
मगर बच्चों से दादा दादी का वो प्यार रह गया,
छीनी है बीवी से भी ननद ओ भावज की चुहलबाज़ी,
हुआ था जो एक, देवरानी जेठानी का करार रह गया ।
निकला था देने खुशियाँ, अपनो को हर जहां की,
पर अपनी ही गफलतों का, होकर मैं शिकार रह गया,
लगती है ये नौकरी अब, उस जालिम साहूकार जैसी
जिसके कर्ज़ का मैं बनकर, बंधुआ कर्ज़दार रह गया ,
जिसके कर्ज़ का मैं बनकर, बंधुआ कर्ज़दार रह गया ।
'अक्स'