Friday, August 27, 2021

खलिश

"आज आईना मुझसे नाराज़ सा है,

मेरे असास की दरारें, दिखाता ही नही,

आदिल ये मेरा हमसफर, रहा है सदियों से,

इक्तिज़ा ये आब-ए-आईना की, जानता ही नही"


"वक्त मुकर्रर है मेरा, आशिक़ से मिलने का,

ख़लिश में बंधा है पाँव, आगे बढ़ता ही नही,

गंजीदा सा है मेरा अक्स, संभालूं तो कैसे,

गिला करता है, गुलिस्तां गुल खिलाता ही नही"


"गवारा होती नही अब, ये चमक चिलमन की,

चमन में मेरे चराग, अब कोई जलाता ही नही,

जुम्बिश कहूँ या चस्मक, फ़क़त नज़र का फेर है,

अब्र के फेर में अब, कोई जमजम पिलाता ही नही"


"अल्फ़ाज़ मेरे टूटे है अब, अज्ज करते करते,

खंडहर हुई इमारत मगर, कोई बसाता ही नही,

कीमत मेरे ज़मीर की, है यूं तो बस एक सच,

अफसोस दुनिया में ये बोली, कोई लगाता ही नही"


'अक्स'

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