"कुहासा भरी सड़क के एक किनारे से निकलती वो,
धुएँ में लिपटी कोई तस्वीर नज़र आती है,
ठंड की कंपकंपाहट से लरजते वो होठ उसके,
मानो कोई तितली पंख फड़फडाए चली आती है"
"हवा के संग बहते शॉल को यूँ लपेटती वो,
ज्यूँ चंदन व्रक्ष से सर्पिणी लिपटती जाती है,
पाले की सर्द बूँदो की ठिठुरन से सहरती हुई,
काँपती पलकों से कुहासे को चीरती जाती है"
"बहती हवा से आगे बढ़ने की जद्दोजहद करती वो,
लगता आज मन में कुछ करने की ठानी है,
सर्द कुहासा गहरा है या उसकी झील सी आँखें,
वो अजंता की मूरत मेरे दिल में उतरती जाती है"
"अक्स"
Monday, December 26, 2011
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