Tuesday, July 20, 2010

चितचोर

"वो बहकी सी मदहोश निगाहें,
मानो मय का सागर छलका रही हैं,
हर कोई पागल हो चल पड़ा उनके पीछे,
वो फिर भी अपना जाल फैला रही है"

"भरी हिरनी सी चंचल चपलता उनमे,
सूरज सा चमक एक तेज बिखेर रही हैं,
पलकों की ओट से शीतल चाँदनी फैलातीं वो ,
जाने किस गुमान में उड़ी जा रही हैं"

"जग में फैला रहीं एक भ्रम जाल वो,
मस्ती में बस झूम रही हैं,
बन तेज़ कटारी उतर पड़ी हर दिल में,
जग के सब बंधन काट रही हैं"

"अक्स"

Sunday, July 11, 2010

हया

"उनकी पलकों पर फैली वो मद्धम सी हया,
जाने क्यूँ मेरे दिल में उतर जाती है,
उनकी निगाहों में उभरती हुई एक लकीर,
मानो मेरे होने पर ही एक सवाल उठाती है"

"वो मुस्कुराती है होले से कुछ इस तरह,
जैसे रात में तारो संग चांदनी फ़ैल जाती है,
लब थिरकते रहते हैं पर न कुछ बोलती वो,
बिन कुछ कहे भी जाने कैसे सब कह जाती है"

"तडपाती है मुझे जाने क्यूँ उन अदाओ से,
फिर एक तिरछी नज़र से घायल कर जाती है,
बड़ी अजीब है ये उसकी क़त्ल करने की अदा अक्स,
जिसको वो अपनी हया के पहलू में छुपा जाती है"

"अक्स"