"आज फिर यूँ ही घर से निकलते ही,
वो फिर सामने आ खड़ी हुई,
उलझे बाल, रूखा चेहरा लिए,
मानो किसी ने उसका खून चूस लिया हो"
"हाँ यही तो हुआ था शायद उसके साथ,
पहले घर की चारदीवारी,फिर संतानो ने चूसा,
बाकी बचा हुआ समाज की खोखली कुरीतियों ने ,
छोड़ा तो बस हाड़ माँस का एक गलता हुआ शरीर"
"उसे देख जाने मुझे ऐसा क्यूँ लगता है,
वो इस खोखले समाज की ज़िंदा तस्वीर है,
धीरे धीरे समाज भी गल रहा उसके साथ अब,
ओर वो बेबस पड़ी पड़ी सिसक रही है"
"अक्स"
Friday, May 28, 2010
Thursday, May 13, 2010
ज्वाला
"आज अनायास ही मस्तिष्क में उभर आए कुछ पल,
गूलर व्रक्ष पर खिले उस सलोने पुष्प की तरह,
जज़्ब थी कहीं कहीं शीत ऋतु की ज्वाला उनमे,
तो कहीं दमके सुलगते हुए अँगारे की तरह"
"बहने लग पड़े मानसिक पटल पर कुछ यूँ,
पर्दे पर अभिनीत किसी चलचित्र की तरह,
देख जिसे उभरी महीन रेखाएँ किसी ललाट पर,
किसी ह्रदय में उभरे एक बवंडर की तरह"
"जाने क्यूँ आंकलन करने लग पड़ा मैं उनका,
बैठ किसी बही में एक मुंशी की तरह,
जोड़ने लग पड़ा कि ऩफा ओ नुकसान देखूं,
अटका जो एक बार तो इसी में रह गया बिंदु की तरह"
"अक्स"
गूलर व्रक्ष पर खिले उस सलोने पुष्प की तरह,
जज़्ब थी कहीं कहीं शीत ऋतु की ज्वाला उनमे,
तो कहीं दमके सुलगते हुए अँगारे की तरह"
"बहने लग पड़े मानसिक पटल पर कुछ यूँ,
पर्दे पर अभिनीत किसी चलचित्र की तरह,
देख जिसे उभरी महीन रेखाएँ किसी ललाट पर,
किसी ह्रदय में उभरे एक बवंडर की तरह"
"जाने क्यूँ आंकलन करने लग पड़ा मैं उनका,
बैठ किसी बही में एक मुंशी की तरह,
जोड़ने लग पड़ा कि ऩफा ओ नुकसान देखूं,
अटका जो एक बार तो इसी में रह गया बिंदु की तरह"
"अक्स"
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